बिहारी व्यंजनों का इतिहास बताती एक किताब


बिहारी खानपान का इतिहास बेहद समृद्ध रहा है। आज भी बिहारी खानपान की पहचान देश के पटल पर मौजूद है। प्राचीन मगध साम्राज्य से शुरू हुआ सिलसिला अब तक चल रहा है। यहां के स्वाद में देसीपन का छौंक है, तो वहीं बिहरी व्यंजनों के साथ प्रयोग करने से भी नहीं कतराते हैं। 

 इस्मात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पत्रकार रविशंकर उपाध्याय की पुस्तक बिहार के व्यंजन संस्कृति और इतिहास अपने अंदर बिहारी व्यंजन से जुड़े किस्से-कहानियां को समेटी है। रविशंकर उपाध्याय ने अपनी किताब के बारे में कहा, बिहार के व्यंजनों को लेकर एक स्टीरियोटाइप छवि रही है। जब मैं एक अखबार में कार्यरत था, तो उस वक्त टेस्ट ऑफ बिहार कार्यक्रम चला करता है, जिसमें मुझे लोगों का व्यापक समर्थन मिला फिर मैंने रामायण और वेदपुराण पढ़े, जिसके बाद इस किताब का लेखन संभंव हो सका है। रविशंकर उपाध्याय कई सालों से पत्रकारिता की क्षेत्र से जुड़े रहे हैं। उन्होंने कई प्रतिष्ठित समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में कार्य किया है। 

 बिहार के व्यंजन संस्कृति और इतिहास में करीब 65 प्रकार के व्यंजनों की चर्चा की गई है। इतना ही नहीं केवल मिथिला के ही 150 के किस्से हैं और पेड़ा के 40 प्रकार का जिक्र किया गया है।  

 पूरे देश में बिहारी स्वाद की धूम

 कोई भी दौर रहा हो बिहारी स्वाद की चर्चा पूरे देश में होती रही है। बिहार के व्यंजनों की इन्हीं खासियतों को लेकर एक किताब आई है, जिसका नाम बिहार के व्यंजन: संस्कृति और इतिहास है। इसे इसमाद प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है। इस किताब में बिहार के व्यंजनों के इतिहास और बिहारी खानपान की संस्कृति के बारे में जानकारी दी गई है। 

 लेखक ने इस किताब में बताया है कि मगध साम्राज्य में जब बिहार लंबे समय तक सत्ता का केंद्र था, तो यहां से शासन करने वाले महान सम्राटों ने यहां के व्यंजनों को राज्याश्रय प्रदान किया था। इस कारण प्राचीन राजगृह के इर्दगिर्द आज भी व्यंजनों पर निर्भर कस्बे मौजूद हैं। चाहे वह खाजा के बेमिसाल स्वाद वाला सिलाव हो या पेड़ा बनाने वाला निश्चलगंज। गया में चावल और तिल के साथ प्रयोग कर तिलवा-तिलकुट से लेकर अनरसा जैसा प्रयोगधर्मी स्वाद बनाया गया। 

 हिसाब-किताब में भी व्यंजनों का स्वाद 

 प्राचीन पाटलिपुत्र मतलब आज के पटना का भी इतिहास समृद्ध रहा है। यहां पुराने शहर में खुरचन थोडी दूर पर बाढ-बख्तियारपुर और धनरूआ में लायी तो मनेरशरीफ में नुक्ती वाले लड्डू हैं, तो वहीं बडहिया में रसगुल्ले है। आपको जानकर हैरानी होगी कि ये वैसे कस्बे हैं, जिनका पूरा आर्थिक हिसाब-किताब व्यंजनों के कारोबार से चल रहा है। 

 भोजपुर इलाके में प्रयोगधर्मी मिष्ठान्नों की भरमार है। उदवंतनगर में खुरमा, ब्रह्मपुर में गुडई लड्डू, गुड की ही जलेबी तो बक्सर में सोनपापडी है। थावे, गोपालगंज की पेडुकिया है, जिसे लोग गुझिया भी कहते हैं। ये उदाहरण तो बस बानगी हैं। आप राज्य के चाहे किसी भी हिस्से में चले जाइए वहां पर आपको कोई न कोई बेमिसाल स्वाद मिल जाएगा।

 यात्रियों ने भी गढ़े बिहार के किस्से 

 बिहार के स्वाद परंपरा का लिखित इतिहास चौथी शताब्दी से शुरू होता है, जो आजतक जारी है। पाली साहित्य में बताया गया है कि भगवान बुद्ध को बोधगया में सुजाता ने खीर का स्वाद चखाया था। महान सम्राट अशोक ने पाटलिपुत्र में अशोक राजपथ के किनारे आम के पेड़ लगवाए थे, जिसे चौथी शताब्दी में भारत पहुंचा चीनी तीर्थयात्री फाह्यान आमलन वन बताता है। 

छठी शताब्दी ई में बिहार आने वाले ह्वेनसांग वैशाली के केले का जिक्र करते हैं। इन दोनों ने बिहार के कई स्वाद की चर्चा अपने यात्रा वृतांत में की है। दोनों ने ही लिखा है कि यहां मांसाहार बहुत कम था, यहां तक कि प्याज लहसुन भी बहुत कम लोग खाते थे। मुगलों के राज में इसे आगे विस्तार दिया गया। अकबर ने दरभंगा में लाखी बाग लगाया था, जिसमें एक लाख आम के पौधे लगाए गए थे।